विस्थापितों ने ही झेली विभाजन की महात्रासदी की भयावह पीड़ा, राजा तो बदलते थे लेकिन प्रजा बदल गयी

  • प्रदीप सरदाना

      वरिष्ठ पत्रकार

हम 15 अगस्त 1947 से प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस का उत्सव हर्षोल्लास से मनाते आ रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस के इस महापर्व पर देश उन अनेक स्वतंत्रता सेनानियों का स्मरण करता है, जिन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए अनेक कष्ट सहे, अपने प्राणों की आहूति दी। ऐसे सेनानियों को बेहद सम्मान से स्मरण करना हमारा कर्तव्य है और उन्हें ये सम्मान मिलना ही चाहिए। लेकिन देश ने आज़ादी के बाद के 75 बरसों तक उन करोड़ों विस्थापितों की भयावह पीड़ा का भुला दिया, जिन्होंने देश विभाजन की ऐसी त्रासदी झेली, जिसको जानकर आज भी रूह काँप उठती है।

आज देश स्वतंत्र होने का आनंद और सुख तो हम ले रहे हैं। लेकिन हम में से अधिकांश लोग नहीं जानते कि इस स्वतंत्रता और देश विभाजन का सबसे बड़ा दर्द किसी को मिला तो वे विस्थापित हैं। ऐसे विस्थापितों में से अनेक ने अपना सर्वस्व लूटा दिया। अपना घर-बार,परिवार,जमा पूंजी ही नहीं उन्हें अपने सामने ही घर की बहू बेटी, अपनी पत्नी और माँ का बलात्कार देखना पड़ा। मुस्लिम दंगाईयों का इससे भी मन नहीं भरा और वे धन-दौलत, इज्ज़त लूटने के बाद भी बेरहमी से सभी की हत्या करते रहे। उनके सामने कोई दूधमुंहा बच्चा आया या कोई बुजुर्ग या महिला उन्होंने एक पल में तलवार से उसके टुकड़े कर दिये।

सच कहा जाये तो देश के लिए अपना सब कुछ खोकर ऐसे मर मिटने वाले भी शहीद हैं। लेकिन उनके इस बलिदान, इस शहादत को कोई सम्मान देना तो दूर,उन्हें बरसों याद तक नहीं किया गया। ऐसे बेबस और पीड़ित लोगों की दर्द भरी दास्तां किसी इतिहास के पन्नों में भी अंकित नहीं है।

पीएम मोदी ने समझा विभाजन और विस्थापितों का दर्द

इधर आज़ादी के अमृत महोत्सव के मौके पर पहली बार भारत सरकार ने विस्थापितों के दर्द को समझा और 14 अगस्त 2021 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की घोषणा के बाद पहली बार ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ (Vibhajan Vibhishika Smriti Diwas) मनाया गया। यह इस परंपरा का तीसरा वर्ष है। पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ का आयोजन और भी अच्छे ढंग से हो रहा है। इससे यह साफ है कि मोदी सरकार इस आयोजन को सिर्फ कागजी खानापूर्ती के लिए नहीं, विस्थापितों के सम्मान के लिए कर रही है।

इस सबसे विस्थापित परिवारों के सदस्यों के कभी ना भरने वाले ज़ख़्मों पर मरहम तो लगेगा ही। साथ ही ऐसे असंख्य विस्थापित शहीदों की आत्मा को शांति भी मिलेगी। बरसों बाद ही सही किसी प्रधानमंत्री ने उन्हें याद किया। देश की आज़ादी में उनके भी योगदान को तो समझा। हालांकि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों को यह सहन नहीं हुआ। उनका कहना था कि बरसों पुरानी त्रासदी को आज क्यों याद किया जाये। ऐसे लोग आज भी नहीं चाहते कि विस्थापितों को कोई सम्मान मिले। उनकी पीड़ा, उनके दुखड़े उनका बलिदान दुनिया के सामने आए।

जबकि यह कटु सत्य है कि आज़ादी के 75 बरस बाद भी आज भी हालात कुछ मामलों में वैसे ही हैं, जैसे 1940 के दशक में थे। बांग्लादेश में तख़्ता पलट के बाद हुई त्रासदी इस बात की बड़ी मिसाल है। जो यह बताती है कि कट्टरपंथी मुस्लिमों की हिंदुओं के प्रति नफरत सदियों पहले भी थी, देश विभाजन के समय में थी और आज भी है।

तख़्ता पलट के तुरंत बाद जिस तरह ऐसे कट्टरपंथी मुस्लिमों ने बांग्लादेश में एक पल गँवाएं बिना, हिंदुओं का नरसंहार शुरू कर दिया, उनके घर जला दिये, महिलाओं के साथ बलात्कार किया। जो ये बताता है कि मौका मिलते ही ये अपनी असलियत पर उतर आते हैं। ऐसे लोगों के लिए धर्मनिरपेक्षता और भाईचारा तभी तक है जब ये स्वयं असुरक्षित हैं।

देश विभाजन के दौरान के हिंदुओं पर हुए क्रूर और वीभत्स अत्याचार की भयावह कहानियाँ पंजाब के घरों में आज भी सलामत हैं। चाहे आज उस आतंक की मार सहने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं। लेकिन उस समय पाँच-सात साल के मासूम बच्चे रहे जो आज भी दुनिया में हैं, वे वो सब याद कर सिहर उठते हैं। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह उठती है।

इधर विभाजन के दौर की उस साम्प्र्यदायिक दंगों की त्रासदी का कुछ चित्रण भीष्म साहनी ने अपने 1973 में अपने उपन्यास ‘तमस’ में किया था। जिस पर बाद में फिल्म-सीरियल का निर्माण भी हुआ। मनोहर श्याम जोशी ने भी ‘बुनियाद’ में विभाजन के दर्द को दिखाया।

फिल्म ‘गदर’ में भी लाशों से भरी ट्रेन का दृश्य झकझोर कर रख देता है। पीछे इतिहासकार उर्वशी बुटालिया ने भी अपनी पुस्तक ‘द अदर साइड ऑफ साइलेंस’ में विस्थापितों की सच्ची कहानियाँ रखीं हैं।

‘विभीषिका’ और ‘हे राम’ पुस्तकें 

जबकि हाल ही में दो ऐसी पुस्तकें आई हैं जो विभाजन विभीषिका की वो सत्य घटनाएँ बताती हैं जिन्हें पढ़ कलेजा मुंह को आता है। इनमें एक उपन्यास शिक्षाविद और बेहतरीन लेखक रत्न चंद सरदाना (Ratan Chand Sardana) का है-‘विभीषिका’ (Vibhishika)। जिनके बाल मन ने उस दंश को अपनी आँखों से देखा। तब के 6 साल के बालक की वे स्मृतियाँ आज 77 बरस बाद भी उनकी आँखों ही नहीं दिल-ओ-दिमाग में भी बसी हैं। तभी यह संभव हो पाया कि वह ‘विभीषिका’ जैसा सशक्त उपन्यास लिख सके। जिसमें अपने उपन्यास के नायक ओमप्रकाश के माध्यम से उस दौर का पूरा घटनाक्रम, उस पीड़ा और उन ज़ख़्मों को कुछ इस तरह उतारा है मानो सब कुछ हमारी आँखों के सामने घट रहा हो।

दूसरी पुस्तक प्रखर श्रीवास्तव (Prakhar Shrivastava) की है –‘हे राम’। जिसमें लेखक ने गहन अध्यन के पश्चात विभाजन के दौर के सभी पहलुओं को बारीकी से उठाया है। इस पुस्तक के कुछ पन्ने पढ़ने पर भी यह समझा जा सकता है कि उन्होंने इसे लिखने में कितना परिश्रम किया होगा। हर बात शीशे कि तरह साफ हो इसके लिए प्रखर ने उस काल खंड के कितने ही राज नेताओं और  कई अहम व्यक्तियों की पुस्तकें पढ़ीं। जिससे पुस्तक में लिखी बातें तथ्यों के साथ, प्रमाण के साथ सामने आती हैं।

यह पुस्तक एक उस बड़े सच को भी बेबाकी से उजागर करती है कि झूठ का आख्यान तब भी ऐसे फैलाया जाता था, जैसे आज फैलाया जा रहा है। पंडित नेहरू हों या महात्मा गांधी उन्होंने ने भी जो कुछ किया वह आँखें खोल देता है।

राजा तो बदलते थे लेकिन प्रजा बदल गयी

मैं भी अपने बचपन से अपने माता-पिता से उस त्रासदी कथा को सुनता रहा। यह सोच ही मन विचलित हो जाता है कि हमारी पिछली पीढ़ियों ने इतनी भयावह त्रासदी आखिर कैसे झेली होगी। मेरी आदरणीय माँ राज सरदाना जी बताती थी कि विभाजन में अपनी पुरखों की ज़मीन छोड़ कहीं दूर जाने की बात सुन उनकी नानी आदरणीय बुद्धो बुद्धि बाई जी हैरान और विचलित हो गईं। वह बोलीं–‘’राजा तो बदलते हैं लेकिन प्रजा बदलने की बात तो पहली बार सुनी है।‘’ देखा जाए तो यह विश्व की सबसे बड़ी त्रासदी थी जिसमें दो करोड़ से अधिक लोगों को विभाजन का दर्द सहना पड़ा। जबकि 10 लाख लोगों को अपने प्राण गँवाने पड़े।

इस देश विभाजन और विभीषिका के लिए जहां मुस्लिम लीग और उसके नेता मुहम्मद ली जिन्ना कसूरवार थे। वहाँ महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भी इसके लिए पूरे जिम्मेदार रहे। दुख यह था कि विभाजन के इस दौर में जब मुसलमान हिंदुओं को मौत के घाट उतार रहे थे, तो नेहरू –गांधी चुप्पी साधे  हुए थे। लेकिन जैसे ही हिन्दू बदला लेने के लिए उतरते तो गांधी, शांति और अहिंसा की अपील करने लगते।

विभाजन के समय अपने कितने ही बलिदान करके जैसे तैसे पंजाब से कितने ही पंजाबी भारत के पूर्वी पंजाब के हिस्सों में पहुंचे। सम्पन्न-प्रसन्न पंजाबी परिवार पलक झपकते ही शरणार्थी बन गया था। लेकिन ऐसे कितने ही किस्से हैं कि अपनी दयनीय हालत में भी पंजाबियों ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने कहा हम शरणार्थी नहीं पुरुषार्थी हैं।

आज वही पंजाबी कौम देश में ही नहीं विदेशों में भी विकास और प्रगति की गाथा लिख रही है। फिर भी आज इस बात की अत्यंत आवश्यकता है कि देश में विस्थापितों को नमन करने के लिए एक स्मारक अवश्य बनना चाहिए। जिससे उनके बलिदान की गाथाएँ अमर रहें।

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